८ नवंबर, १९७२

 

 मुझ क्षण-भरके लिये -- कुछ ही सेकंडोंके लिये -- अतिमानस-चेतना प्राप्त हुई थी । वत्स, वह अद्भुत चीज थी ! मै समझ गयी हूं कि अगर अभी हम उसका स्वाद ' जाय त हम उसके बिना रहना पसंद न करेंगे । और हम... (गूधनेकी मुद्रा), अभी मेहनतके साथ बदलनेके

 


पथपर हैं । और परिवर्तन, बदलनेकी प्रक्रिया, ऐसा लगता है कि... । उसे एक प्रकारकी उदासीनतासे पाया जा सकता है (पता नहीं, इसे कैसे कहा जाय) । परंतु यह अधिक टिकता नहीं । और साधारणत: यह श्रमसाध्य है । लेकिन वह चेतना, वह ऐसी अद्भुत है, समझे!

 

   और यह बहुत मजेदार है, मानों पूर्ण शांतिमें अधिकतम क्रियाशीलता हो । लेकिन वह चीज रही कुछ सेकंड ही ।

 

 (मौन)

 

 और तुम?

 

  और यह समग्र चेतना है?

 

वह असाधारण है । वह मानों परस्पर-विरोधोंका सामंजस्य है । एक समग्र, विस्मयकारी क्रियाशीलता और पूर्ण शांति ।

 

  लेकिन यह सब शब्द हैं ।

 

 (मौन)

 

    यह भौतिक चेतना है?

 

यह क्रिया भौतिक क्रिया है -- लेकिन उसी तरहसे नहीं, क्यों, है न?

 

 (मौन)

 

   उसके साथ ज्यादा आसानीसे कैसे संपर्क किया जा सकता है? वहांतक कैसे पहुंचा या वहां रहा जा सकता है?

 

 मुझे नहीं मालूम, क्योंकि, मेरे लिये तो, समग्र चेतना, जिसमें शरीरकी चेतना मी आ गयी ( निवेदनकी मुद्रा), सदा... उसकी ओर मुंडी रहती है जिसे वह भगवान् समझती है ।

 

   और वह भी बिना ''कोशिश'' के, समझे?

 

    जी हां, जी हां ।

 

२९२